भारतीय मीडिया को करना होगा आत्म-विश्लेषण

लोकसभा चुनाव के दौरान यदि सबसे अधिक आलोचना किसी की हो रही है तो वह भारतीय प्रेस यानी मीडिया है। कठघरे में तो निर्वाचन आयोग भी है। लेकिन उस पर हमेशा ही सरकार का नियंत्रण रहा है। हालांकि उसे निष्पक्षता और निर्भयता के साथ चुनाव कराने के लिए असीमित अधिकार मिले हैं, इसके बावजूद बहुत कम निर्वाचन आयुक्त सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की परवाह किए बिना अपनाा दायित्व निभााने के लिए जाने जाते है। इस बार तो वह सत्तारूढ़ पार्टी के एजेंट की तरह ही काम कर रहा है।
प्रेस और मीडिया इसलिए कठघरे में है कि जो उसे करना चाहिए वह नहीं कर रहा है। देश का चौथा स्तंभ होने के नाते चुनाव के समय और अधिक चौकन्ना होना चाहिए था, लेकिन वह न केवल लचर है बल्कि उसका बड़ा हिस्सा शासन के समक्ष नतमस्तक ही नहीं है बल्कि रेंग रहा है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में भाट और चारणों के काल के बारे में पढ़ा था। 4 मई को इंडिया टीवी के मालिक-ऐंकर रजत शर्मा से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साक्षात्कार देखने के बाद लगा कि वह काल आज से बुरा तो क्या रहा होगा। राजधानी के सबसे बड़े नेहरू स्टेडियम में हजारों भाजपा समर्थकों की उपस्थिति में रजत शर्मा  से प्रधानमंत्री का साक्षात्कार ... साक्षात्कार शुरू होने से पहले करीब एक घंटे तक वहां बैठे लोगों के जरिए दर्शकों का ‘ब्रेनवाश’ ... मंच संचालक की घोषणा - कुछ ही क्षणों में ‘देश के वकील’ रजत शर्मा पूछेंगे प्रधानमंत्री से मुश्किल सवाल ...!
साक्षात्कार क्या था, चुनावी रैली थी - रैली के मुख्य वक्ता-देश के प्रधानमंत्री-प्रधान सेवक - (और अब) चौकीदार के आगमन की पूर्व सूचना ... ऐसे भी होता है साक्षात्कार, पहली बार देखा! भाषा भी गली-मोहल्लों में बंदरों औैर सांप-नेवले का खोल दिखते मदारियों वाली।
अपने आप पर कोफ्त-सी हुई, क्यों देख रहा हूं मैं यह?
अगले दिन सोशल मीडिया में इस साक्षात्कार की ऐसी फजीहत हुई कि कोई संवेदनशील पत्रकार होता तो आत्महत्या ही कर लेता। पर ये रजत शर्मा हैं - मोटी चमड़ी है, आलोचनाएं बेअसर! अलबत्ता मोदी समर्थकों ने अपनी फूहड़ भाषा में उन टिप्पणियों का जवाब देने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
मन में, पद्मश्री रजत शर्मा द्वारा लिए गए प्रधानमंत्री के इस साक्षात्कार पर बौद्धिक वर्ग की प्रतिक्रिया जानने की जिज्ञासा बनी हुई थी। पत्रकार जगत मौन और न केाई साहित्यकार या मीडिया क्रिटिक ही सामने आया, जो यह कहने का साहस कर सके कि पत्रकारिता के नाम पर यह गलत हो रहा है।
अखबार के एक कोने में भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का वक्तव्य पढ़ने को मिला। अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए चर्चित जस्टिस काटजू ने भारतीय मीडिया के लिए जिन शब्दों का उपयोग किया है वह उनके पद की प्रतिष्ठा के लिए अनुकूल नहीें कहा जा सकता लेकिन शायद ही कोई पत्रकार या मीडियाकर्मी उनसे असहमत हो (सिवाय रजत शर्मा और उन जैसे कुछ लोगों के)। राजा राममोहन राय, गणेश शंकर विद्यार्थी, निखिल चक्रवर्ती औैर (हमारे बीच के) पी. साईंनाथ का उल्लेख करते हुए वह कहते हैं;
Indian media is engaged in diverting attention of the people from poverty, unemployment, suicides of farmers, mal nutrition etc., now media is concentrating covering the activities of film stars, cricket, fashion show, dirty politics - ali and bajrang bali.
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In emergency journalist was asked to bend down to a little but these days they are prostrating completely in front of Authorities.
एक लोकतंत्र में शासन और मीडिया के बीच क्या संबंध होने चाहिए यह सपष्ट करने के लिए जस्टिस काटजू ने अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस Hugo Black के कथन का उल्लेख करते हुए कहा है;
In the first, amendment the founders of the country awarded, freedom of press must ruled out for the rulers.
जस्टिस काटजू क्या ये बातें उसी भारतीय पत्रकारिता के बारे में कह रहे, जिसने आजादी के लिए हजारों बलिदानी-क्रांतिकारी विचारक पत्रकार दिए थे? क्या यह उसी पत्रकारिता की प्रवाहधारा है जहां एक संपादक अपने अखबार की कीमत ‘एक फिरंगी का सिर’ लिखता था? क्या यह गलत है कि अब तक इस देश के प्रधानमंत्री सरकार के कामकाज और जनता की अपेक्षाओं की फीडबैक लेने के लिए पत्रकार वार्ता आमंत्रित करते रहे हैं?
आपातकाल में प्रेस पर प्रतिबंध लगाए जाने पर मुख्यधारा के लगभग सभी अखबारों ने अपना संपादकीय कॉलम खाली छोड़ दिया था या उसे काला कर दिया था। ऐसे कौन से कारण हैं कि वह पत्रकारिता आज रीढ़विहीन हो चुकी है? हम में शासन की नीतियों और काम के तौर-तरीकों की आलोचना का भी साहस नहीं बचा। रजत शर्मा द्वारा लिया गया प्रधाानमंत्री का यह साक्षात्कार सचमुच आंखें खोलने वाला है।
मैं, प्रेस को निष्पक्ष होने की पैरवी नहीं करता - मेरी समझ के अनुसार प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ही होना चाहिए। (यह जानते हुए भी कि यह उक्ति ब्रिटेन के उस पत्रकारिता के लिए कहा गया था जब सरकार के अलावा टेंपोरल (पादरी) और रॉयल्स (सामंत) लोकतंत्र के दो स्तंभ माने गए थे।) इस नाते पत्रकारिता को निष्पक्षीय नहीं बल्कि जनपक्षीय होना चाहिए।
रजत शर्मा के सवाल अनपेक्षित नहीं थे - मैं क्या बहुत सारे लोग जानते होंगे वे प्रधानमंत्री से क्या पूछ सकते है। लेकिन मेरी इस बात से कितने लोग सहमत होंगे  कि वह एक प्रधानमंत्री का साक्षात्कार कहे जाने योग्य ही नहीं था। इससे पहले प्रधानमंत्री ने गीतकार प्रसून जोशी और अभिनेता अक्षय कुमार को साक्षात्कार दिया। उन्होंने अपनी समझ के मुताबिक प्रश्न पूछे थे लेकिन रजत शर्मा तो नामधन्य (?) पत्रकार हैं। इस देश में टीवी पत्रकारिता की पहली खेप के पत्रकार!
इसी सप्ताह ब्रिटेन की ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका में भी Narendra Modi and strugle of India's soul शीर्षक से प्रकाशित  लेख में भी भारतीय मीडिया को कठघरे में खड़ा किया है। लेख में मोदी सरकार को भारत की संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अनुपयुक्त बताया है और भारत की प्रेस के लचर रवैए को इसके लिए अच्छा संकेत न होने की बात कही है।
इकोनोमिस्ट के इस निष्कर्ष को मीडिया के बड़े लोगों ने यह कहकर टाल दिया है कि आज भी अंग्रेज, खासकर ब्रिटेन के नेता, प्रशासक और बुद्धिजीवी हमें अपना गुलाम ही समझते हैं, उनका हर विश्लेषण हमें पहले की तरह निर्देशित करने के सोच पर आधारित होता है।
मैं नहीं जानता कि इकोनोमिस्ट का लेख इस धारणा से कितना प्रभावित है। लेकिन यह जरूर जानना चाहता हूं कि क्या हमें उसकी टिप्पणियों का विश्लेषण नहीं करना चाहिए? क्या हमें आत्म-विश्लेषणा की जरूरत नहीं है?
पत्रकारिता को हमने ‘वरेण्य’ यानी ‘वरण करने योग्य’ माना है। क्योंकि यह एक व्यवसाय और आाजीविका का माध्यम होने के साथ-साथ ‘मिशन’ भी है। खुद को अत्याधुनिक पेशेवर यानी प्रोफेशनल मानने पत्रकार भले ही इसे दकियानूसी या पुरातनपंथी सोच कहें, लेकिन सच यही है कि जिन देशों में मीडिया मजबूत है वहां आज भी वहां यह आदर्श कायम है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, फ्रांस आदि देशों में आज भी मीडिया का स्वरूप जनपक्षीय है, प्रेस सरकार के साथ नहीं जनता खड़ी और मजबूत विपक्ष की भूमिका में है।
इसकी बड़ी वजह, शायद यह भी रही है कि हमारे यहां अन्य लोकतांत्रिक देशों की तुलना में प्रेस पर अनुसंधान बहुत ही कम-नहीं के बराबर हुए हैं। कंप्यूटर और इंटरनेट के आने पर पत्रकारों को तकनीकी रूप से प्रशिक्षित तो किया गया लेकिन समय बदलने के साथ-साथ पत्रकारिता स्वरूप, कार्य प्रणाली आदि के प्रति मीडिया की उदासीनता रही है। यह अत्यंत चिंताजनक है। नए अनुसंधानों और प्रयोगों के अभाव में कभी हमारा मीडिया कपोल-कल्पित तथ्यों - स्वर्ग की सीढ़ियों, पुनर्जन्म के रहस्यों पर केंद्रित हो जााता है तो कभी शासकों के हित में की जाति, धर्म, राष्ट्रवाद, नेताओं की चुनावी भाषा में उलझ जाता है।
रजत शर्मा की गिनती भारत में टीवी पत्रकारिता के शुरूआती पत्रकारों में होती हैं, वह ‘जी न्यूज’ समूह (तब जी टेलीफिल्म) के शुरू के लोगों में से हैं। 2000-01 में एक पत्रिका या अखबार में उनके अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में मीडिया की निर्णायक भूमिका होने संबंधी संस्मरण पढ़ने को मिले थे। काश! आज वह इतना ही याद कर लेते कि अमेरिकी मीडिया किस तरह दुनिया के सबसे ताकतवर देश के सबसे ताकतवर इंसान को कठघरे में खड़ा करता है। अधिक नहीं तो कम से कम उनके कारण भारतीय प्रेस को इतना जलील तो नहीं होना पड़ता।
इन्द्र चन्द रजवार
दिल्ली, 6 मई, 2018 

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