क्या इतिहास की पुनरावृत्ति होगी

क्या इतिहास की पुनरावृत्ति होगी
जो लोग/समुदाय अपना इतिहास भूल जाते हैं या उससे सबक नहीं लेते वे इतिहास की पुनरावृत्ति झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं.
1971 और 2019 के तुलनात्मक अध्ययन से तो यही लगता है कि भारतीय जनमानस को एक बार शासन के दमन चक्र का सामना करना पड़ सकता है.
कांग्रेस के विभाजन के बाद हुए उन चुनावों में इंदिरा गांधी पार्टी की सर्वेसर्वा बन गई थी. उनके बिना कांग्रेस के वजूद की कल्पना नहीं की जा सकती थी.
बैंको के राष्ट्रीयकरण, पूर्व राजाओं व नवाबों के प्रीवी पर्स खत्म करने के बाद गरीबी हटाओ नारे से जनता में वह काफी लोकप्रिय हो गई थीं.
लोकसभा की 518 सीटों के चुनाव हुए कांग्रेस को 352 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. इंदिरा गांधी रायबरेली से एक लाख से अधिक वोटों से चुनाव जीतीं थी. उनके विरुद्ध चुनाव लड़ रहे सं. सो. पा. के ऱाज नारायण के लिए यह अप्रत्याशित था. उन्होंने इंदिरा गांधी की जीत को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया. उन्होंने इंदिरा गांधी पर भ्रष्टाचार और चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगाया था.
शांतिभूषण उनके वकील थे. प्रधानमंत्री के विरुद्ध मामला था सुनवाई में समय तो लगना ही था. 9 जून 1975 को न्यायमूर्ति जगमोहन लाल ने इंदिरा गांधी पर लगे आरोपों को सही पाते हुए उनके चुनाव को अवैध करार देते हुए लोकसभा की सदस्यता सै इस्तीफा देने का आदेश दिया.
उसके 11 दिन बाद 21 जून को इंदिरा गांधी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दर्ज की गई जिसमे इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करने की मांग की गई थी. मामले की सुनवाई के लिए अवकाशप्राप्त जज वीके कृष्णऐयर की अध्यक्षता में गठित विशेष खंडपीठ ने दो दिन बाद ही अपना फैसला सुना दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को रद्द तो नहीं किया लेकिन इंदिरा गांधी को अंतिम फैसले तक पद पर बने रहने की छूट दे दी. साथ ही तब तक के लिए संसद की कार्रवाई पर भाग लेने से रोक लगा दी.
इंदिरा गांधी को तीन सप्ताह की छूट तो मिल गई थी लेकिन विपक्ष का दबाव बढ गया था. नेता सड़कों पर उतर आए.
दूसरी ओर जेपी की अगुवाई में चल रहा समग्र क्रांति आंदोलन चरम पर था. 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी ने एक बड़ी रैली का आयोजन किया जिसमें लगभग सभी पार्टियों के नेताओं ने शिरकत की थी.
इंदिरा गांधी लगभग बौखला उठीं. आकाशवाणी को नियंत्रण में ले लिया और अखबारों को निर्देश दिया कि समग्र क्रांति आंदोलन और विपक्ष की खबरे प्रसारित न करें. और अगले दिन 26 जून को सुबह ही आपातकाल की घोषणा कर दी. मजे की बात यह है कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा करते जेपी का नाम लिये बिना उन पर सेना को बगावत के लिए उकसाने का आरोप लगा दिया था.
सोचने की बात ये है कि इस घटना के चार दशकों बाद क्या देश फिर उसी स्थिति के करीब तो नहीं है?
क्या वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्थिति और इंदिरा गांधी की स्थिति समान नहीं है?
क्या आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक समुदाय विशेष के बीच अत्यधिक लोकप्रिय हैं और दूसरी और किसानों छात्र युवाओ और समाज के कमजोर वर्ग के लोग आंदोलनरत नहीं है?
क्या इंदिरा गांधी की तरह आज के प्रधानमंत्री भी सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल नहीं कर रहे?
यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इंदिरा गांधी के राह चले तो कौन रोक लेगा उन्हें??
03-05-2019

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ