Climate Change: हिमालय का मिजाज बदल रहा है, विशेषज्ञ दूरगामी दुष्परिणामें को लेकर आशंकित

 दुनिया की सबसे लंबी और सबसे नई पर्वत श्रृंखलाओं में एक हिमालय का मिजाज तेजी से बदल रहा है। बीते एक दशक के दौरान दूसरे शब्दों में कहें तो वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद बार-बार प्रकृति ने इसकी चेतावनी दी है। मौसम विज्ञानी और भूगर्भ शास्त्री इन दस सालों में हिमालयी क्षेत्रों में आई विनाशकारी आपदाओं के लिए जलवायु परिवर्तन (Climate Change) और हिमालय की पारिस्थितिकी (Himalayan Ecology) में आ रहे बदलावों को जिम्मेदार मानते हैं।

हिमालय को लेकर चिंता की नई घटना इस साल अब तक उच्च हिमालयी पहाड़ियों पर बर्फबारी न होना है। मुख्यरूप से उत्तराखंड में आमतौर पर दिसंबर के पहले सप्ताह से ऊंची पहाड़ियों पर बर्फबारी होने लगती है, और फरवरी आखिर तक ये पहाड़ियां बर्फ से ढकी रहती हैं। इस साल जनवरी बीतने को आया है लेकिन तक बर्फबारी नहीं हुई है।

बर्फबारी न होने पर्यटन व्यवसायी और किसान चिंतित

हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और पूर्वोत्तर राज्यों मुख्यरूप से सिक्किम की स्थिति भी यही है। बर्फबारी न होने का तात्कालिक नुकसान पर्यटन व्यवसाय पर पड़ा है। पर्यटन व्यवसाय इन सभी राज्यों की अर्थव्यवस्था का आधार है। सर्दियों में क्रिसमस और नए साल का जश्न मनाने और बर्फबारी देखने के लिए भारी संख्या में यहां पर्यटक आते थे। इस साल लगभग सभी राज्यों के शीतकालीन पर्यटन स्थलों में बीरानी छायी रही।

स्थानीय लोगों की दूसरी बड़ी चिंता बर्फबारी न होने का नकारात्मक असर खेती और बागवानी पर पड़ने को लेकर है। ज्ञात हो कि इन राज्यों के उच्च पहाड़ी इलाकों में सेब मुख्य उपज है, सेब की अच्छी पैदावार के लिए बागानों में डेड़-दो महीने बर्फ का टिका रहना जरूरी समझा जाता है। इन इलाकों में सर्दियों में कोई भी फसल नहीं होती है। खरीफ के मौसम में दालें, सब्जियां, कई फल और कुछ अनाज पैदा होते हैं। पैदा होते हैं। सर्दियों में बर्फ न पड़ने से उनकी पैदावार भी प्रभावित होती है। यही वजह है कि मौसम की पहली बर्फबारी का स्वागत इन इलाकों के लोग एक जष्न मनकार करते हैं।

मौसम विज्ञानियों और भूगर्भ शास्त्रियों को दूरगाती पुष्परिणमों की चिंता

मौसम विज्ञानी और भूगर्भ शास्त्री पर्यटन व्यवसाइयों और किसानों-बागवानों की चिंता से वाकिफ हैं, लेकिन उनकी चिंता इससे कहीं अधिक व्यापक है। आने वाले समय में बड़ी आपदाओं का संकेत मान रहे हैं। उत्तराखंड सरकार के मौसम विभाग के निदेशक प्रो. बिक्रम सिंह कहते हैं कि बर्फ न पड़ने का सीघा असर पर्यटन व्यवसाय और खेती-किसानी पर पड़ना तय है। लेकिन उनकी चिंता इसके दूरगामी परिणामों को लेकर अधिक है। प्रो. सिंह कहते हैं, बर्फ न पड़ने से ग्लेशियरों को पर्याप्त बर्फ नहीं मिलेगी और नए ग्लेशियर नहीं बनेंगे। साथ ही गर्मी का मौसम समय से पहले शुरू हो जाएगा, ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे और वाप्ीकरण में तेजी आएगी। इसकी परिणगति अतिवृष्टि, बाढ़ और भूस्खलन के रूप में होगी।

मौसम विज्ञानी प्रो. विक्रम सिंह का इशारा क्या एक बार फिर हिमालय में केदारनाथ आपदा (Kedarnath Tragedy 2013) जैसे विनाशकारी विध्वंस की ओर नहीं है ? जून 2013 में क्या यही नहीं हुआ था ? उस वर्ष पहाड़ी इलाकों में मानसून आने से पहले ही भारी बारिस शुरू हो गई थी। केदारनाथ आपदा से पहले उत्तराखंड के ही पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत आदि जिलों में अतिवृष्टि और भूस्खलन की कई घटनाएं हुई थी, जिनकी ओर देश और दुनिया का उतना ध्यान नहीं गया जितना कि केदारनाथ आपदा ने खींचा था। 16 जून को प्रसिद्ध तीर्थस्थल केदारनाथ के निकट बादल फटने के कारण आई बाढ़ के कारण जन-धन का कितना नुकसान हुआ था, इसका सही-सही आकलन आज तक नहीं हो पाया है।

उत्तराखंड सरकार के आंकड़ों के मुताबिक केदारनाथ आपदा से 5,700 से अधिक लोग मारे गए थे और 30,000 से अधिक लोगों पर इसका सीधा असर पड़ा था। गैर-सरकारी आकलन के अनुसार में मरने वालों और प्रभावितों की संख्या इससे कहीं थी। इस आपदा के कारण केदारनाथ के सबसे निमट की बस्ती गौरीकुंड अैर उससे नीचे सोनप्रयाग पूरी तरह तहस-नहस हो गए थे। मंदाकिनी, अलकनंदा आदि नदियों के किनारे स्थित रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, ऋषिकेश और अन्य छोटे नगरों व बस्तियों में उस विनाशलीला के चिन्ह आज तक देखे जा सकते हैं।

इस विनाशलीला की पुनरावृति 2014 में कश्मीर के श्रीनगर में और 2015 में असम में आई बाढ़ के रूप में हुई। इन आपदाओं को हिमालय से छेड़छाड़ के विरुद्ध शिव का तांडवकहा गया था। वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के अनुसार इन्हें अधिक भयावह और विनाशकारी बनाने में हिमालयी क्षेत्र में निर्माण-विकास की नीतियां जिम्मेदार थीं। उम्मीद की गई थी सरकार इससे सबक लेगी। बीते दस सालों में साल-दर-साल आई आपदाओं से स्पष्ट होता है ऐसा नहीं हुआ।

वर्ष 2023 की तीन घटनाओं ने चेताया विशेषज्ञों को

प्रकृति की चेतावनी को अनदेखा करने और उससे छेड़छाड़ की विभीषिका कितनी भयावह हो सकती है, वर्ष 2023 की तीन बड़ी घटनाओं के रूप में एक बार फिर उजागर हुई है।  ये तीन घटनाएं हैं ; एक - जनवरी में उत्तराखंड के सबसे प्रचीन नगर और प्रमुख तीर्थ स्थल जोशीमठ में दरारों का आना, दो - अक्टूबर में सिक्किम में लोनांक ग्लेशियर के टूटनाऔर तीन- नवंबर में उत्तराखंड के ही उत्तरकाशी जिले में एक निर्माणाधीन सुरंग की छत गिरना (Uttarkashi Tunnel Collapse) और 41 मजदूरों का सुरंग में फंस जाना।


उल्लेखनीय है कि देश के उत्तर में स्थित हिमालय पर्वत जिसे देश का सर्वोच्च प्रहरीकहा गया है। वैदिक काल से आज तक न जाने सैकड़ों कवियों और विद्धानों ने इसकी भव्यता और भारतीय सभ्यता के विकास में इसके योगदान का गुणगान किया है। देश के 10 राज्य और उनमें रहने वाले करीब 5.5 करोड़ लोग इसकी गोद में बसे हैं। हिमालय के स्वभाव में आए बदलाव और उसके विरुद्ध मानवीय गतिविधियों के दुष्परिणामों का असर उन पर तो पड़ना ही है, देश के बाकी हिस्से, खासकर उत्तर भारत के मैदानी हिस्से, भी उससे बचे नहीं रह सकते। कारण स्पष्ट है हिमालय पर्वत से निकलने वाली सदानीरा - गंगा-यमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्र और उनकी दर्जनों सहायक नदियां न केवल इस पूरे क्षेत्र की जीवन रेखा है, बल्कि हिमालय पर्वत ही इस पूरे उपमहाद्धीप को उत्तरी धुव्र की बर्फानी हवाओं से बचाता है और हिंद महासागर से उठने वाले वाष्प को रोककर इसे शस्य-श्यामलाबनाता है। ऐसे पर्वतराज हिमालय के संकट पर मौसम विज्ञानियों, भूगर्भ शास्तियों और पर्यावरणविदों  का चिंतित होना स्वाभाविक है।

(अगले अंक में - हिमालयी क्षेत्रों में निर्माण-विकास की नीतियां, दुष्परिणाम और विशेज्ञों की चिंता)

Source: https://www.amarujala.com/uttarakhand/pithoragarh/himalayan-hills-look-black-due-to-lack-of-snowfall-pithoragarh-news-c-230-1-shld1024-8555-2023-12-28/

https://www.trtworld.com/magazine/himalayan-plunder-worlds-tallest-mountain-range-on-the-brink-of-disaster-16669267

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