उच्च हिमालयी क्षेत्रों में इस मौसम में अब तक बर्फबारी न होने के कारण, नेपाल से लेकर हिंदुकुश तक के लोग चिंतित हैं। कारण चाहे जलवायु परिवर्तन (Climate Change) हो या प्रकृति की संवदेनशीलता की उपेक्षा कर संसाधनों के दोहन की विकास नीति का परिणाम जन सामान्य से लेकर मौसम विज्ञानी, भूगर्भशास्त्री और पर्यावरणविद सभी चिंतित है।
‘धरती का स्वर्ग’ कहे जाने वाले
कश्मीर, जहां पर्यटन एक व्यवसाय ही नहीं जीवन का हिस्सा भी है, के
लोगों की व्यथा से इसे समझा जा सकता है। हर साल सर्दियों में हजारों पर्यटक
स्कीइंग और दर्शनीय स्थलों का आनंद लेने कश्मीर जाते हैं। लेकिन इस साल कश्मीर में
बर्फबारी (Kashmir Snowfall) न
होने से पर्यटक व्यवसाय को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है।
अनायास नहीं है कश्मीर की चिंता
बीबीसी (www.bbc.com) में प्रकाशित
एक रिपोर्ट के अनुसार, अधिकारी कहते हैं कि पिछले साल जनवरी में एक
लाख से अधिक पर्यटक कश्मीर आए थे, इस साल यह संख्या आधे से भी कम हो गई
है। होटल व्यवसायी कहते हैं कि बर्फ न पड़ने के कारण 50 प्रतिशत से
अधिक पर्यटकों ने अपनी बुकिंग रद्द करवा दी है। ...विशेषज्ञों को कहना हे कि
बर्फबारी रहित सर्दियों का क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव पडेगा।
ज्ञात हो कि पर्यटन, बागवानी और मछली
पालन कश्मीर घाटी की अर्थव्यवस्था के आधार हैं। सर्दियों होने वाली बर्फबारी में
इन सभी का सीधा संबंध है। कश्मीर में बर्फबारी का मौसम आमतौर पर 24
दिसंबर से 29 जनवरी के बीच रहता है। इस साल अब तक बर्फबारी
न होने का असर शीघ्र ही यानी चार-छः महीनों में ही, देखने को
मिलेगा।
लेकिन बर्फबारी न होने के दूरगामी परिणाम अससे
कहीं अधिक भयावह हो सकते हैं। जैसा कि उत्तराखंड मौसम विभाग के निदेशक विक्रम सिंह
का आशंका से स्पष्ट होता है। (देखें: arthantarujas.in/2024/01/climate-change.html) लेकिन क्या
हामरे नीति नियंता प्रकृति यानी हिमालय की इस संवेदनशीलता के प्रति सजग हैं?
इसका
खुलासा भारत के प्रसि़द्ध पर्यावरणविद (Famous Environmentalist of India) रवि चोपड़ा के
हवाले से TRT
World में प्रकाशित रिपोर्ट से होता है।
ऑल वेदर चार धाम की जिद्द
इस रिपोर्ट में नवंबर 2023
में उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में निर्माणाधीन सुरंग धंसने के के
संबंध में कहा गया है कि 4.5 किमी लंबी यह सुरंग प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी ‘ऑल वेदर चारधाम’ परियोजना का
हिस्सा है। उत्तराखंड स्थित चार धामों - यमनोत्री, गंगोत्री,
केदारनाथ
और बद्रीनाथ को जोड़ने वाली यह सड़क परियोजना 2016
में शुरू की गई थी। इसका उद्देश्य सरकार क्षरा धार्मिक पर्यटन और तीर्थाटन को
बढ़ावा देना और उत्तराखंड का आर्थिक विकास बताया गया था।
ज्ञात हो कि भूवैज्ञानिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में 100 किमी से लंबी सड़कों के लिए कानूनन पर्यावरण प्रभाव आकलन जरूरी है। इसे बचने के लिए सरकार ने ऑल वेदर चार धाम परियोजना को 53 छोटी परियोजनाओं में विभाजित कर दिया, जिनमें सभी 100 किमी से कम लंबी थी। इसके बावजूद कर्द पर्यावरणवदी संगठनों ने इस परियोजना को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। मामले की जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने उच्चाधिकार समिति का गठन किया जिसके समिति अध्यक्ष रवि चोपड़ा थे।
अभेद्य हिमालय का अपमान क्यों
समिति ने अपनी रिपोर्ट में परियोजना पर रोक
लगाने की सिफारिश की। शीर्ष अदालत ने सरकार को परियोजना में संशोधन करने की आदेश दिया तो सरकार ने
राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर उसे आवश्यक बताया। चूंकि उससे पहले गलवान और
डोकलाम में चीनी सेना के अतिक्रमण और भारत और चीन के सैनिकों की बीच झड़पों के कारण भारत और चीन के बीच तनाव बना हुआ था।
इस कारण, शीर्ष अदालत ने दिसंबर, 2021 में सरकार को परियोजना को आगे बढ़ाने
की मंजूरी दे दी।
इसके तुरंत बाद रवि चोपड़ा ने उच्चाधिकार समिति
के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। अपने त्याग पत्र में उन्होंने लिखा था,
‘‘कभी
अभेद्य रहे हिमालय के अपमान को करीब से देखा’’ और चेतावनी दी
कि ‘‘प्रकृति अपने खजाने पर की गई ऐसी जानबूझकर की गई गलतियों को न तो
भूलती है और न ही माफ करती है।‘‘
पर्यावरणविदों की चिंता के कारण
चार धाम सड़क परियोजना अकेली ऐसी परियोजना नहीं
है जिसने हिमालय पर दबाव डाला हो या जिसके कारण पर्यावरण कार्यकर्ता चिंतित हों।
रवि चोड़ा कहते हैं कि देश के बाकी हिस्सों में भी स्थानीय पर्यावरण और भूविज्ञान
की प्रकृति की चिंता किए बिना अपनाए गए इस आर्थिक विकास मॉडल में पिछले दस वर्षों
में इसमें तेजी आई है, जिनमें रेलवे एवं राजमार्गों का विस्तार और बड़ी
जलविद्युत परियोजनाएं प्रमुख है।
श्री चोपड़ा के अनुसार भारत में कुल जल विद्युत
उत्पादन क्षमता का करीब 70 प्रतिशत हिमालय में मौजूद है। कोई भी
परियोजना की शुरुआत से लेकर कमीशनिंग और अपने संपूर्ण जीवनकाल में प्रकृति को
प्रभावित करती है। हालांकि आज, बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के प्रतिकूल
प्रभावों की वैज्ञानिक समझ पहले की तुलना काफी बढ़ गई है। इस नई समझ के आलोक में ही
उनकी अनुमानित क्षमता पर विचार करने की जरूरत है।
कम नहीं हैं प्रकृति की चेतावनियां
अनियंत्रित मौसम चक्र में अतिवृष्टि और सूखा
दोनों अपरिहार्य हैं, इसकी परिणति अचानक बाढ़, भूस्खलन और भूमि
धंसने सहित प्राकृतिक आपदाओं के रूप मं होती है। प्रकृति की चुतावनियों को
नजरअंदाज कर आरंभ इन परियोजनाओं ने भयावह आपदों में तब्दील किया है।
इसी अदूरदर्शिता के कारण जून 2023
में, भूस्खलन होने से जम्मू-कश्मीर में एक निर्माणाधीन सुरंग क्षतिग्रस्त
हो गई थी। अगस्त में, हिमाचल प्रदेश में एक भूस्खलन के कारण
राष्ट्रीय राजमार्ग का 40 मीटर लंबा हिस्सा बह गया था। राज्य की
कई जलविद्युत परियोजनाएं वर्षों से रुकी हुई हैं, क्योंकि
परियोजनाओं के निकट भूस्खलन और धंसाव की घटनाएं होती रहती हैं।
कश्मीर के पीर पंजाल क्षेत्र में भूमि धंसने के
वजह कटरा-बनिहाल रेलवे लाइन और रतले जल विद्युत परियोजना को जिम्मेदार मानस जाता
है।
उत्तराखंड के जोशीमठ के समान ही सिक्किम के
डिक्चू में मकानों में बार-बार आने वाली दरारें वहां के लोगों की चिंता की बड़ी वजह
है, जिसके लिए स्थानीय लोग तीस्ता नदी पर बने बांध को जिम्मेदार मानते
हैं।
मणिपुर में एक निर्माणाधीन सड़क में बार बार-बार
होने वाले भूस्खलनों को तब तक गंभरता से नहीं लिया गया जब कि 2022
में भूस्खलन से 61 लोगों की मौत हो गई थी। यह अप्रत्याशित घटना
नहीं थी।
हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिक
प्रो. यशपाल सुंदरियाल के कहते हैं, ‘‘हिमालयी क्षेत्र में मौसम चक्र में
परिवर्तन के कारण भूस्खलन के अलावा, इस क्षेत्र में बड़े भूकंपों का खतरा भी
है। माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई में वृद्धि इसकी टेक्टोनिक गतिविधियों में सक्रिया को
स्पष्ट करती है।’’
वास्तविकता से अनभिज्ञ नहीं है सरकार
निर्माण-विकास की विसंगतियों का एक पक्ष यह भी
है कि इससे हिमालयी क्षेत्र में तेजी से वनों का विनाश हुआ है। 4
दिसंबर, 2023 को सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत रिपोर्ट
में कहा गया है कि पिछले दस वर्षों के दौरान अकेले पूर्वोत्तर के राज्यों में 3,698
वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र की कमी आई है, जिसके लिए मुख्य रूप से प्राकृतिक
आपदाओं और मानवजनित दबाव को जिम्मेदार माना गया है।
हिमालयी क्षेत्रों के मौजूदा विकास मॉडल के
कारण भौतिक संसाधनों का तेजी से विनाश भी कम चिंता का कारण नहीं है। देश की सर्वोच्च
नीति सलाहकार संस्था, नीति आयोग की दिसंबर 2017 की रिपोर्ट में
कहा गया है कि पूरे हिमालयी क्षेत्र में जल स्रोतों के सूखने या झरनों के निर्वहन
में कमी के मामले बढ़ रहे हैं।
समापन
स्पष्ट है कि इस मौसम में बर्फबारी न होने के
कई दुप्श्परिणामों का सामना न केवल हिमालयी क्षेत्र को बल्कि पूरे देश का करना पड़
सकता है। निश्चित ही जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक परिघटना है, कोई
एक देश इसे नियंत्रित नहीं कर सकता। लेकिन वह इसके प्रभावों को कम करने का प्रयास
तो कर ही सकता है। हिमालयी क्षेत्र के विकास मॉडल से लगता नहीं है कि भारत सरकार
इसे लेकर वास्तव में गंभीर है।
Source: https://www.bbc.com/news/world-asia-india-68015106
Source: https://www.trtworld.com/magazine/himalayan-plunder-worlds-tallest-mountain-range-on-the-brink-of-disaster-16669267
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