एक बार फिर, किसान आंदोलन को
लेकर देश का माहौल गरमाया है। मुख्य रूप से कृषि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price) का
कानूनी दर्जा देने की मांग को लेकर किसान आंदोलित हैं। पूरे देश से किसान ट्रेन,
बस,
ट्रैक्टर
और अन्य साधनों से दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं। देश की राजधानी दिल्ली में 16
फरवरी को किसानो का धरना प्रस्तावित है। इस दिन किसान संगठनों ने ग्रामीण भारत (Rural India) बंद का आह्वान
किया है। इससे पहले आज 13 फरवरी को भारी संख्या में किसान
दिल्ली आ रहे हैं।
सरकार ने किसानों को दिल्ली में प्रवेश से पहले
ही दिल्ली की सीमाओं पर रोकने के पुख्ता इंतजाम किए हैं, दक्षिण भारतीय
राज्यों से दिल्ली आ रहे किसानों को ट्रेन से उतारकर हिरासत में लिया जा रहा है।
यही नहीं, किसानों को आंदोलन में शामिल होने से रोकने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों
मुनादी की जा रही है।
किसानों की मांगों अथवा सरकार के रवैए से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है। लेकिन
इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि एक सामाजिक आंदोलन के रूप में किसान आंदोलन
में पूरे देश और समाज को गतिशीलता प्रदान कर सकता है। खासकर ग्रामीण भारत में इसका
व्यापक प्रभाव पड़ना तय है। और फिर भारत में तो बदलाव की शुरुआत ही किसानों के
विद्रोह से हुई थी।
स्वतंत्रा प्राप्ति से पहले किसान आंदोलन
ज्ञात हो कि भारत में ब्रिटिश हुकूमत के
शुरुआती 90 सालों में 1763 से 1856 के बीच देश में
हुए 40 से अधिक नागरिक विद्रोहों में ज्यादातर किसान आंदोलन ही थे। बंगाल,
बिहार,
मैसूर,
विशाखपटनम,
त्रावनकोर,
मद्रास,
सौराष्ट्र
आदि क्षेत्रों में हुए इन आंदोलनों में किसानों ने ही ऑपनिवेशिक शासन की खिालाफत
की शुरुआत की थी। उस
दौर के लगभग सभी किसान आंदोलन,
ब्रिटिश
राजसत्ता के साथ-साथ देश के राजाओं, नवाबों, जमींदारों और
शुदखोरों के भी खिलाफ थे।
1857 की क्रांति के बाद भी किसान आंदोलनों का सिलसिला थमा नहीं। 1859 में शुरू बंगाल के नील उत्पादक किसानों के आंदोलन की पीठिका पर ही 1917 में महात्मा गांधी की अगुवाई में हुए चंपारन आंदोलन की इबारत लिखी गई थी। 1859-’76 का पाबना विद्रोह (बंगाल), 1875 क दक्कन उपद्रव (अहमद नगर, महाराष्ट्र), 1803 का असम के किसानों का आंदोलन आदि कई ऐसे उदाहरण हैं, जिन्हेंने भारतीय जनमानस को सोच को बदलने में निर्णायक भूमिका निभाई थी।
उस दौर के किसान आंदोलनों औचित्य को स्वीकारते
हुए ब्रिटिश सरकार ने किसानों के हक में कई कानून बनाए। उन्हीं में एक 1894
में बनाया गया भूमि अध्रिहण कानून था। हालांकि ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए गए
कानूनों का मकसद औपनिवेशिक शोषण को खत्म करना नहीं बल्कि किसानों को राजाओं,
नवाबों
और जमींदारों के दमन और शोषण से बचाना था।
राष्ट्रीय नेताओं ने भी किसान आंदोलन से ही अपनी पहचान बनाई
19वीं सदी के इन किसान आंदोलनों की प्रेरणाशक्ति
ही 20वीं सदी के जुझारू किसान आंदोलनों का आधार बनी और देश के कई महान
नेता उनका नेतृत्व करने के लिए आगे आए। जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे, बाल
गंगाधर तिलक, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेंद्र
प्रसाद, यहां तक कि पं. जवाहर लाल नेहरू सहित कई राष्ट्रीय नेताओं ने किसान
आंदोलनों के जरिए ही अपनी पहचान बनाई थी।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के स्थापना से पहले, दादाभाई नौरोजी ने औपनिवेशिक
अर्थतंत्र के विरुद्ध आजादी की जो अलख जगाई थी, उसके केंद्र में
भी किसान ही थे। जहां तक गांधी जी की बात है, उनका संपूर्ण
चिंतन ही किसान, ग्राम समाज और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित
है। उन्होंने ग्राम समाज की तुलना समुदी लहर के वलय से ही है, जिसके
बिना न तो लहर का कोई अस्तित्व होता है और न ही समुद्र का।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी नहीं बदली स्थिति
दुर्भाग्य यह है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
भी किसानों की स्थिति में खास सुधार नहीं हुआ। निश्चित ही हरित क्रांति और कृषि
क्षेत्र में हुए विभिन्न शोधों और अनुसंधानों की बदौलत कुछ क्षेत्रों में उल्लेखनीय
विकास हुआ और देश खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हुआ है लेकिन समग्र
में इसका लाभ कृषक समुदाय को नहीं मिला है। इसी का परिणाम है कि आजाद भारत में कई
बार देश के विभिन्न क्षेत्रों के दर्जनों बार जुझारू किसान आंदोलन हुए हैं।
2020-21 के किसान आंदोलन अब तक के सभी किसान आंदोलनों
में सबसे बड़ा और सबसे अधिक प्रभावी रहा है। भारत सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि
कानूनों के विरोध में और न्यूनतम समर्थन मूल्य सहित विभिन्न मांगों को लेकर अगस्म 2020
में शुरू यह आंदोलन नवंबर 2021 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा
तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा किए जाने पर समाप्त हुआ। उसी समय
प्रधानमंत्री ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने की आश्वासन किसानों को
दिया था और आंदोलन के समय कई किसानों किसानों पर दायर मुकदमों पर गंभरता से विचार
करने की बात कही थी।
आंदोलनकारी किसानों और सरकार की पूरी तैयारी हैं
इस घटना को दो साल से अधिक समय बीत जाने के बाद
भी जब कोई प्रगति नहीं हुई तो किसान संगठनों फिर से आंदोलन की राह पकड़ी है।
हालांकि इस बीच देश के राजनैतिक और सामाजिक परिवेश में काफी कुछ बदला है, पिछली
बार आंदोलन में शरीक कई संगठन इस बार आंदोलन में शामिल नहीं है। लेकिन इस बार
किसान इस तथ्य से पूरी तरह अवगत हैं कि अपनी मांगें मनवाने के लिए उन्हें किन-किन
मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, तो वहीं सरकार को भी पता है कि किसानों
को मनाना या रोकना कितना कठिन हो सकता है। लिहाजा दोनों ओर से पूरी तैयारी है।
पिछली बार की तरह ही इस बार भी किसान आंदोलन का
प्रभाव उन्हीं क्षेत्रों में अधिक है जहां कृषि की बेहतर स्थिति है और राज्य की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान अपेक्षाकृत
अधिक है। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र,
कर्नाटक,
तमिलनाडु,
केरल
आदि ऐसे राज्य हैं जहां कि कृषि विकास की उन्नत स्थिति का लाभ राज्य के औद्योगिक
विकास और व्यापार को मिला है।
इसका यह मतलव भी नहीं कि जिन क्षेत्रों में
किसान आंदोलन को लेकर कोई आग्रह नहीं है वहां इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा। बल्कि एक
सामाजिक आंदोलन के नाते यह संपूर्ण देश को प्रभावित कर सकता है। पिछले आंदोलन के
दौरान इस बात पर काफी चर्चा हुई थी कि बीते 70-75 सालों में
उद्यमियों, व्यापारियों और सरकारी एवं गैर-सरकारी
कर्मचारियों की तुलना में किसानो की आय में कितनी कम वृद्धि हुई है। इसका नकरात्मक
असर न केवल किसानों पर बल्कि संपूर्ण ग्रामीण समुदायों पर पड़ा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में होगा राजनैतिक चेतना का विस्तार
आजाद भारत में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की
ओर पलायन कर मुख्य कारण ही, कृषि, जो कि ग्रामीण
अर्थव्यवस्था का आधार है, का विकास न होना है। इसके कारण ही आज
कोई भी किसान यह नहीं चाहता कि उसके बच्चे खेती-किसानी करें। कृषि क्षेत्र की
उपेक्षा का ही परिणाम है कि 1990 में जहां देश की अर्थव्यवस्था में
कृषि का योगदान करीब 35 प्रतिशत था आज वह करीब 16
प्रतिशत रह गया है। यही नहीं इस बीच कृषि क्षेत्र में असमानता भी चिंताजनक गति से
बढ़ी है। छोटे और मझोले किसानों के खेती-किसानी छोड़ने के कारण बड़े भूमिधरों की और
विकास-निर्माण की योजनाओं और शहरी विस्तार के कारण कृषि भूमि के अधिग्रहण से
भूमिहीन किसानों की संख्या में इजाफा हुआ है।
इधर जब शहरी क्षेत्रों में रोजगार की अवसरों में कमी आई, उद्योगों और व्यावसायिक कारोबार में मशीनीकरण और पूंजी का दबदबा बढ़ा है तो किसान आंदोलन निश्चित ही ग्रामीण समुदायों को कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर सेचने के लिए प्रेरित करेगा। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में राजनैतिक चेतना का विकास तो होगा ही बदलाव की दिशा में नए सामाजिक आंदोलन की भी पृष्ठभूमि तैयार होगी।
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