NSSOऔर CMIE के परस्पर विरोधी दावे और मनरेगा की हकीकत



यह संयोग है या प्रयोग, कहना कठिन है। देश में बेरोजगारी को लेकर जैसे ही दो परस्पर विरोधी रिपोर्टें प्रकाश में आई सरकार ने ग्रामीण बेरोजगारी को कम करने के अतिरिक्त धन आबंटन की घोषणा कर दी। जी हां, मैं बात कर रहा हूं महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीमों (मनरेगा) के लिए केंद्रीय वित्त मंत्रालय के अनुपूरक अनुदान की। 

मनरेगा से पहले उन दो रिपोर्टों की बात की जाए जिनमें देश में बेराजगारी की स्थिति को उजागर किया है। पहली रिपोर्ट राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन यानी  NSSO की है। केंद्रीय सांख्यिकी मंत्रालय के अधीनस्थ एनएसएसओं के अनुसार वर्ष 2022-23 में (जुलाई से जून की अवधि में) देश में बेरोजगारी वृद्धि दर पिछले 6 सालों में सबसे निचले स्तर पर आई है। इसी अवधि में वर्ष 2021-22 में जहां राष्ट्रीय बेरोजगारी दर 4.1 प्रतिशत थी इस वर्ष घटकर 3.2 प्रतिशत रही है। इसमें भी ग्रामीण बेरोजगारी दर 2.4 प्रतिश यानी शहरों से कम दर्ज की गई है।

एनएसएसओ के इस दावे के ठीक विपरीत निजी क्षेत्र की कंपनी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनौमी (CMIE) के अनुसार अक्टूबर 2023 में देश में बेरोजगारी दर बीते ढाई सालों में सबसे उच्च स्तर पर रही है। सीएमआइई का आकलन देशभर के 1.30 लाख परिवारों से जुटाए गए आंकड़ों पर आधारित है। सीएमआइई ने कहा गया है कि अक्टूबर 2023 में राष्ट्रीय बेरोजगारी दर 10.09 प्रतिशत रही है, जो कि मई 2021 में 7.9 प्रतिशत थी। यही नहीं, सीएमआइई ने न केवल ग्रामीण बेरोजगारी दर शहरी बेरोजगारी दर से अधिक बताया है बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में एक ही महीने में 4.6 प्रतिशत की वृद्धि की बात कही है। सितंबर 2023 में ग्रामीण बेरोजगारी दर 6.2 से अक्टूबर में बढ़कर 10.82 प्रतिशत हुई है। 

आखिर सच क्या है? इसका खुलासा करती है  केंद्रीय  वित्त हवाले से प्रसारित वह रिपोर्ट जिसमें मनरेगा के लिए 28.000 करोड़ रुपए अतिक्ति आबंटन की घोषणा की गई है,  इसकी पहली किस्त के 10.000 करोड़ रुपए जारी भी कर दिए गए है। वित्त मंत्रालय ने यह निर्णय मनरेगा स्कीमों में काम की मांग बढ़ने के आधार पर लिया है। जबकि ग्रामीण विकास मंत्रालय संसद के शीतकालीन सत्र के समय से ही वित्र मंत्रालय से अतिरिक्त अनुदान की मांग कर रहा था। 

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान  कहा गया था कि मनरेगा बजट का 90 प्रतिशत व्यय हो चुका है । उसके कुछ समय बाद कहा गया कि मनरेगा स्कीमों में मजदूरों के भुगतान का 9.000 करोड़ रुपया बकाया है। उसी दौरान ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने दावा किया था कि मनरेगा स्कीमों के लिए धन की कमी आड़े नहीं आएगी, वित्त मंत्रालय अतिरक्त धन के आबंटन के लिए सहमत है। उस समय 23.000 करोड़ रुपए अतिरिक्त आबंटन के लिए वित्त मंत्रालय की सहमति की बात कही गई थी। 

इधर, जो सच्चाई सामने आई है वह यह है कि इस वित्तीय वर्ष में मनरेगा में काम की तेजी से बढ़ी है, जो न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ी बेरोजगारी बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी काम की कमी का सूचक है। आंकड़ों के मुताबिक इस साल 31 अक्टूबर मे मनरेगा के तहत 205.74 मानव दिवस कार्य का सृजन हुआ है जो कि इसी अवधि में पिछले साल 188.42 करोड़ मानव दिवस था, अर्थात 9 प्रतिशत की वृद्धि। ग्रामीण सुवा, जो कि कम पारिश्रमिक और समय पर भुगतान होने के कारण मनरेगा में काम नहीं करना चाहते और शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं, उन्हें यदि शहरों में काम मिल जाता तो वे मनरेगा में काम की मांग क्यों करते? 


हालांकि वर्तमान सरकार समय-समय पर यह दावे भी करती रही है कि उसने मनरेगा के लिए पूर्ववर्ती सरकारों से अधिक धन आबंटित किया है। यदि केंद्रीय बजट के आइने में मनरेगा बजट को देखा जाए तो इससे सच्चाई सामने आ जाती है। वर्ष 2012-13 में, जबकि कांग्र्रेसनीत यूपीए सरकार थी, केंद्रीय बजट 14,90,925 करोड़ रुपए का था और मनरेगा के लिए 33.000 करोड़ रुपए आबंटित किए गए थे, अर्थात कुल बजट का 2.21 प्रतिशत। जबकि 2023-24 के 45.03.097 करोड़ रुपए के बज्ट में मनरेगा के लिए 60.000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था, यानी बजट का 1.33 प्रतिशत।

यही नहीं वर्तमान सरकार बीते तीन सालों से मनरेगा बजट में निरंतर कटौती आई है, जो वर्ष 2021-22 में 98.000 करोड़ रुपए था उसे घटाकर 2022-23 में 89.400 करोड़ कर दिया गया और इस वर्ष और भी कम 60.000 करोड़ कर दिया गया। जबकि कोरोना संकट के दौरान यह साबित हो चुका था कि मनरेगा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का प्रमुख जरिया है। कोराना संकट के कारण मार्च 2020 में जब देशव्यापी लॉकडाउन के कारण शहरी क्षेत्रों के ऑद्वोगिक और व्यावसायिक प्रतिष्ठान बंद होने परप्रवासी मजदूर अपने गांव लौट गए थे, तो उनके पास मनरेगा ही ऐसा माध्यम था, जिससे वे अपनी आजीविका चला सकते थे। नतीजतन सरकार को मनरेगा के लिए 40.000 करोड़ रुपए बढ़ाने पड़े।

आज की स्थिति कोरोना संकट के शुरुआत की स्थिति से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है। उस समय लोगों के पास बचत की धनराशि थी और गरीबों की मदद करने वाले लोग भी थे, कुछ नहीं तो लोगों को ऋण मिल सकता था। आज बेरोजगारी और महंगाई बढ़ी है बल्कि मदद करने या ऋण देने वाले भी नहीं हैं। बेरोजगारी और महंगाई का समाना करने कर रहे ग्रामीण युवा आज जाएं तो जाएं कहां? मनरेगा की पिछली देनदारियों का भुगतान करने के बाद, वित्त मंत्रालय के 28,000 करोड़ के अनुपूरक अनुदान में से उसके पास 18.000 करोड़ रुपए ही रह जाएंगे, इससे क्या होगा? अभी तो इस वित्तीय वर्ष के पूरे पांच महीने बाकी हैं।

विसंगति यह है कि प्रधानमंत्री कोरोना संकट के समय शुरू की गई ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना’ को आगामी पांच वर्षों तक बढ़ाने की बात तो करते हैं, जिसका स्पष्ट संदेश यही है कि आने वाले पांच सालों में देश की आधी से अधिक आबदी को हर महीने सरकार के पांच किलो अनाज पर निर्भर रहना होगा। लेकिन लोगों को आत्मनिर्भर बनाने और ग्रामीण संरचना के विकास में सहायक मनरेगा को लेकर सरकार का यह उपेक्षापूर्ण रवैया है। 

जहां तक देश में बेरोजगारी की बात है, सरकार की नीतियां इस संकट को बढ़ाने वाली ही नजर आती हैं। बीते 9 सालों में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के कारण सरकारी नौकरियों में जबर्दस्त कमी आई है, विभिन्न विभागों के लाखों स्वीकृत पद रिक्त पड़े हैं। निजी क्षेत्र की स्थिति और भी खराब है, बड़ी कंपनियों में ऑओमेशन कारण रोजगार के अवसर कम हुए हैं तो छोटी कंपनियां और असंगठित क्षेत्र अभी तक नोटबंदी, जीएसटी और कोरोना की मार से उबर नहीं पाए है। दुर्भाग्य तो है कि देश का युवा वह चाहे गांव का 10वीं-12वीं पास हो या विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत या पढ़ाई पूरी करने के बाद रोजगार के दर-ब-दर भटकने को मजबूर, आंखें मूंदे हुए है। 

इन्द्र चन्द रजवार 

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