Pt. Nehru : एक राजनेता भला कैसे आलोचना से परे हो सकता है?


नेहरू जयंती पर विशेष

  • मनुष्य की आत्मा भी कैसी अद्भुत है! अपनी अनगिनत कमजोरियों के बावजूद आदमी ने सभी युगों में, एक आदर्श के लिए, सत्य और विश्वास के लिए, देश और सम्मान के लिए अपने जीवन की और अपनी प्रिय वस्तुओं की कुर्बानी दी है। आदर्श बदले हैं लेकिन कुर्बानी की भावना हमेशा बनी रही। इसी की वजह से हम इंसान की कमजोरियों को माफ कर सकते हैं और उसकी तरफ से मायूस नहीं होते।

यह कथन पं. जवाहरलाल नेहरु का है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ (The Discovery of India) के आरंभ में उन्होंने अपने जीवन-दर्शन को स्पष्ट करते हुए यह बात कही है। पं. नेहरु के बारे में अच्छी या बुरी तमाम तरह की बातें कही जाती हैं। कई विद्वान मानते हैं कि यदि नेहरू राजनीति में न आते तो एक लेखक के रूप में ख्याति प्राप्त करते। यदि यही बात हम देश और समाज को उनके योगदान के संदर्भ में कहें तो उसका नजरिया कुछ इस तरह होता ;

यदि नेहरू राजनीति में न आते तो कांग्रेस पूर्ण स्वतंत्रता की मांग उठाती ही नहीं और देश अधिक से अधिक ‘डोमिनियन स्टेट’ का दर्जा हासिल कर पाता, जिसमें सर्वोच्च सत्ता तो ब्रिटिश क्राउन की होती, भारतीयो  को कुछ-बहुत नागरिक अधिकार जरूर मिल जाते। जैसा कि ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग उठने से पहले तक कांग्रेस का रवैया था। पहली बार, कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू ने ही ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग उठाई थी और 1929 के लाहौर अधिवेशन में उसे पारित भी करवाया। 

यह भी तो कहा जा सकता है कि यदि नेहरू राजनीति में न आते तो गांधी जी अपना उत्तराधिकारी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को बनाते, क्योंकि गांधी जी द्वारा नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने से पहले तक अधिकतर कांग्रेसियों को यही लगता था। यदि ऐसा होता तो राजगोपालाचारी ही आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बनते। उनके नेतृत्व में आजाद भारत की राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास की दिशा क्या होती? इसका इस आधार पर अनुमान लगाया जा सकता कि जब इन्दिरा गांधी ने बैंको के राष्ट्रीयकरण, पूर्व राजा-महाराजाओं के प्रीवीपर्स खत्म करने के बाद समांतों और जमींदारों की अतिरिक्त जमीन (हदबंदी की सीमा से बाहर) का अधिग्रहण कर उसे भूमिहीनों में बांटने का निर्णय लिया तो राजगोपालाचारी ने कांग्रेस से अलग होकर (1969 में) ‘स्वतंत्र पार्टी’ का गठन कर दिया, जिसका घोषित उद्देश्य ही , पूर्व राजा-महाराजाओं, पूंजीपतियों और जमींदारों के हितों की रक्षा करना था। 

यह भी तो कहा जा सकता है यदि नेहरू राजनीति में न आते तो जयप्रकाश नारायण गांधी जी के उत्तराधिकारी होते, क्योंकि 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान और उसके बाद गांधी जी ने जेपी पर ही सबसे ज्यादा विश्वास व्यक्त किया था। आजादी के बाद स्वयं नेहरू ने उनमें देश के भावी नेता देखा था और सरकार में शामिल होकर शासन का अनुभव हासिल करने की सलाह दी थी। विसंगति देखिए, जिन जयप्रकाश नारायण को भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान ‘भारत का लेनिन’ कहा गया था ’70 के दशक में (संपूर्ण क्रांति आंदोलन के अंतिम चरण में) उन्हीं पर फासीवादी होने का आरोप चस्पा हो गया। यदि वे आजाद भारत के पहले या नेहरू के बाद भी देश के प्रधानमंत्री बन गए होते तो भारतीय लोकतंत्र कैसा होता, यह कल्पनातीत है।

बहरहाल, इतिहास की इन बातों को लेकर ‘ऐसा न होता तो ऐसा होता’ की अटकलों का कोई महत्व नहीं है, जो घटित हो गया उसे बदला नहीं जा सकता। लेकिन हम इतिहास में सबक जरूर ले सकते हैं, यही इतिहास की उपयोगिता भी है। नेहरू जी का उक्त कथन भी इसी दृष्टि से उल्लेखनीय है। इसमें निहित सोच के कारण ही पं. नेहरू ने हमेशा ‘व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज की खुशहाली’ की बात कही। इसी कारण उन्होंने अपनी अंतरिम सरकार में अपने धुर विरोधियों डॉ. भीमराव अंबेदकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी को मंत्रिमंडल का सदस्य ही नहीं बनाया बल्कि महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी दी, ताकि उनकी योग्यता का लाभ देश को मिल सके।

यही नहीं, कई मामलों में महात्मा गांधी से भी नेहरू की सहमति नहीं थी। 1930 में गांधी जी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन का निर्णय लेने से लेकर पंचायती राज प्रणाली की संवैधानिक स्थिति के निर्धारण तक, कई बार दोनों की आपसी असमति सतह पर आई। ऐसा भी नहीं कि हर बार नेहरू को ही गांधी जी की बात माननी पड़ी हो, कई बार गांधी जी को भी नेहरू की बात माननी पड़ी, तो कई बार बीच का रास्ता अपनाया गया, जैसा कि पंचायतों की संवैधानिक स्थिति के मामले में हुआ। इसके बावजूद गांधी जी के समक्ष कभी भी उन्होंने अपनी विनम्रता का त्याग नहीं किया। यही कारण है कि देश और दुनिया ने हमेशा दोनों के संबंधों को पिता और पुत्र के बीच संभावित ‘मित्रवत’ संबंध और स्नेह के रूप में देखा। 

पं. जवाहरलाल नेहरू ने एक स्वतंत्रता सेनानी और देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में किस तरह अपने दायित्व का निर्वाह किया, यह हम जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि आज किस तरह उनके बारे में का मिथ्या-प्रचार किया जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। नेहरू एक राजनेता थे, कोई देवपुरुष नहीं थे। एक राजनेता की आलोचना नई बात नहीं है, लेकिन वह तथ्यों पर आधारित हो, ताकि उससे जो गलतियों हुई हैं और जिसके दुष्परिणामों का सामना देश को करना पड़ा है, उसकी पुनरावृति न हो। जहां तक पं. जवाहरलाल नेहरू की बात है, उनकी आलोचना से पहले यह जरूर जान लेना चाहिए कि आजादी मिलने पर जब वे देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उस समय देश के समक्ष किस की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक चुनौतियां थी और किस तरह उन्होंने ‘‘भारत का निर्माण’’ (Making of India) का विचार देश को दिया।

इन्द्र चन्द रजवार

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