Land Acquisition एक बार फिर चर्चा में, देश के कई राज्यों में लटकी हैं विकास योजनाएं

देश में एक बार फिर भूमि अधिग्रहण (Land Acquisition) का मामला सुर्खियों में है। जनता द्वारा भूमि अधिग्रहण के विरोध के कारण कई राज्यों में विकास परियोजनाएं लटकी हुई हैं। इसका असर रियल ईस्टेट पर भी पड़ रहा है। कई रियल इस्टेट कंपनियों ने भारत सरकार से Land Acquisition Act 2013 में बदलाव करने की मांग की है।

भूमि अधिग्रहण को लेकर विवाद यों तो लगभग सभी राज्यों में है लेकिन कुछ राज्यों में इस विवाद के कारण विकास योजनाओं में अवरोध चर्चा का विषय बना हुआ है। मसलन, महाराष्ट्र में सीटी एंड इंडस्ट्रियल डवलपमेंट कार्पोरेशन की विभिन्न योजनाएं, कर्नाटक में बेलगामी परियोजना, तमिलनाडु में कोयंबटूर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का विस्तार, केरल में कोस्टल हाई-वे, सूरत-चेन्नैई एक्सप्रेस वे, पंजाब में ग्रेटर मोहाली एरिया डवलपमेंट से संबंधित योजनाएं आदि का काम इसी कारण रुका हुआ है।

इस सूची में अब यमुना एक्सप्रेस-वे और जेवर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के नाम भी जुड़ता नजर आ रहा है। हालांकि राज्य सरकार ने इन योजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए 3000 करोड़ रुपए स्वीकृत करने का दावा किया है। यही नहीं किसानों और स्थानीय लेगों द्वारा भूमि अधिग्रहण के विरोध के कारण अहमदाबाद-मुबई बुलेट ट्रेन परियोजना करीब 6 साल तक अवरुद्ध रही है। 2018  में शुरू इस योजना के लिए शत-प्रतिशत भूमि अधिग्रहण का काम अब जाकर पूरा हुआ है।

भूमि अधिग्रहण और उसके विरोध की पृष्ठभूमि

भारत सहित दुनिया के लगभग सभी देशों में विकास परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण हमेशा ही विवाद का विषय रहा है। मुख्य रूप से संरचना विकास यानी सड़कों, रेलमार्गों एवं हवाई अड्डों के निर्माण, औद्योगिक इकाईयों की स्थापना, शहरी विस्तार और आवासीय और व्यावसायिक परिसरों के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण और उस पर निर्भर द्वारा भूमि अधिग्रहण का विरोध इस विवाद का मुख्य कारण है।  

भारत में भूमि अधिग्रहण के विरोध की शुरुआत उन्नीसवीं शताब्दि के उत्तरार्द्ध में (1857 के विद्रोह के बाद) ही हो गई थी। इसी कारण अंग्रेज सरकार ‘Land Acquisition act 20131894’ ले आई थी, कृषि और सार्वजनिक उपयोग की भूमि का अधिग्रहण किए जाने पर उस पर निर्भर समुदायों के हितों की रक्षा सुनिश्चित  की जा सके। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उसी कानून के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण होता रहा।

लेकिन देश में 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू किए जाने बाद, बडऋी मात्रा में भूमि का अधिग्रहण के होने के साथ ही उसका विरोध भी तेज हो गया था। 21वीं सदी के पहले दशक में भूमि अधिग्रहण और उसके खिलाफ हुए आंदोलनों ने एक अलग ही इबारत लिखी है, ये आंदोलन न तो किसी एक क्षेत्र या राज्य तक सीमित नहीं थे और न ही किसी एक संगठन द्वारा संचालित थे।

प. बंगाल के नंदीग्राम और सिंगूर से हुई शुरुआत

भूमि अधिग्रहण कानूनों के विरुद्ध किसान आंदोलनों के शुरुआत उसी प. बंगाल से हुई थी जहां उस समय किसानों की हितैषी कहे जाने वाली वाममोर्चा सरकार थी। प. बंगाल की वामामोर्चा सरकार ने 2006 में एक इंडोनेशियाई कंपनी के विशेष आर्थिक जोन के लिए पूर्व मेदिनीपुर, जिले नंदीग्राम में किसानों की 10,000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया था। किसानों ने इसका विरोध किया तो पुलिस-प्रशासन ने उनका दमन करना शुरू कर दिया था। आदोलनकारियों और पुलिस के बीच हिंसक टकराव में 16 लोगों की मृत्यु हो गई थी।

इस घटना से भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध किसानों का आंदोलन एक राजनैतिक मुद्दा बन गया, तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने किसानों के समर्थन में आगे आकर राज्य सरकार पर तीखे प्रहार करना आरंभ कर दिया। नंदीग्राम हिंसा की अभी थमी भी नहीं थी कि हुगली जिले के सिंगूर में भूमि अधिग्रहण के विरोध में आंदोलन शुरू हो गया। इन आदांलनों ने वाममोचार्0 सरकार की चूलें हिला दी थी और 2011 के विधानसभा चुनव में करीब साढ़े तीन दशकों से सत्तारूढ़ वामोर्च को हार का सामना करना पड़ा।

भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध किसान आंदोलनों की इस परिणति का देशभर में असर हुआ। नोएडा के निकट भट्टा पारसोल और दादरी पावर प्लांट के विरुद्ध पहले से चल रहे किसान आंदोलनों को नई ऊर्जा मिली, साथ ही देश के विभिन्न स्थानों में भूमि अधिग्रहण के विरोध शुरू हो गया। उस दौरान देश के 17 राज्यों के 40 से अधिक जिलों में हुए इन आंदोलनों का मुख्य कारण विशेष आर्थिक क्ष्ेात्र, संरचना विकास और अन्य उद्देश्यों के लिए किसानों की कृषि योग्य और सार्वजनिक उपयोग की जमीन का अधिग्रहण किया जाना था।

जनता के दबाव में आकर बदला कानून

आंदोलनों का नेतृत्व अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग संगठन कर रहे थे, जेकिन उनमें जबर्दस्त एकजुटता कायम हो गई थी। आंदोलनकारी संगठनों ने सामूहिक रूप से भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को समाप्त कर नया कानून बनाने और भूमि अधिग्रहण कानून से प्रभावित ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा की मांगें उठानी शुरू कर दी।

केंद्र की डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सूपीए सरकार का रवैया शुरू में भूमि अधिग्रहण के विरोधी इन आंदोलनों के प्रति उदसीनतापूर्ण बना रहा। इससे सरकार के विरुद्ध जबर्दस्त जन असंतोष उभर आया। आंदोलनों का दबाव इमना था कि अंततः सरकार को भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के स्थान पर नया कानून बनाने का निर्णय लेना पड़ा। नतीजतन भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापना में उचित मुआवजा और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम-2013’’ (Right to Fair Compensation and Transparency in Land Acquisition) अस्तित्व में आया।

नया भूमि अधिग्रहण कानून बन  जाने के बाद न केवल विकास योजनाओं के लिए बल्कि आवसीय और व्यावसायिक परिसरों के लिए भूमि अधिग्रहण मुश्किल हो गया। 2014 के चुनावों में कांग्रेसनीत यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलाइंस की हार के कारणों में भूमि अधिग्रहण के कारण किसानों आम जनता का और नया कानून बनने पर रियलइस्टेट कारोबारियों का असंतोष भी मुख्य कारण माना गया।

कानून को बदलने के लिए तीन बार अध्यादेश लाई मोदी सरकार

वर्तमान मोदी सरकार शुरू से ही भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापना में उचित मुआवजा और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम-2013’  बदलना चाहती थी, ताकि मनमोहन सिंह सरकार के समय से ही भूमि अधिग्रहण के विवाद को लेकर त्की पड़ी विकास योजनाओं को चालू किया जा सके। सरकार बनने के तुरंत बाद कैबनेट में यह प्रस्ताव रखा गया था, लेकिन पंचायती राज और ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे के विरोध के कारण यह संभव नहीं हो सका। (उसके तुरंत बाद ही गोपीनाथ मुंडे की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई।)

इसके बाद सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए एक-एक कर तीन बार अध्यादेश ले आई लेकिन भारी विरोध के कारण नया कानून नहीं बना पाई। इस बीच राज्य सरकारों ने विकास योजनाओं में अवरोध का हवाला देकर राज्य स्तर भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की छूट हासिल कर ली।

निश्चित ही विकास योजनाओं के लिए भूमि का अधिग्रहण अपरिहार्य है। इसके बिना हम बदलाव की कल्पना नहीं कर सकते।  लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि आम तौर पर भूमि अधिकग्रहण का उन पर निर्भर किसानों और अन्य समुदायों को नुकसान अधिक होता है। इससे अक्सर अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन पर निर्भर लोगों के समक्ष आजीविका और जीवन यापन की चुनौती पेश होती है। असल में भूमि अधिग्रहण के विरोध का मुख्य कारण भी यही है।

यह समस्या तब और बढ़ जाती है जबकि भूमि अधिग्रहण और विकास के नाम पर शुरू  की जाने वाली योजनाएं व्यक्ति या समूह विशेष को लाभ पहुंचाने वाली हों। सरकार को इस तरह गैर-जरूरी हाया कम जरूरी कार्यों के लिए भूमि अधिग्रहण से बचना चाहिए। अन्यथा, यह तो उसे ध्यान में रखना ही चाहिए कि जनता  की इच्छा के विरुद्ध भूमि अधिग्रहण को बढ़ावा दिए जाने के परिणाम पूर्व में क्या हुए हैं!  

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