MGNREGA श्रमिकों का भुगतान न होने से ग्रामीण गरीबों का संकट गहराया, योजना के भविष्य पर लगे प्रश्नचिन्ह

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड आदि प्रमुख हिंदीभाषी राज्यों से मनरेगा (Mahatma Gandhi National Rural Employment Guaranty Act) श्रमिकों को नियमित भुगतान न मिलने की शिकायतें आ रही हैं। वर्ष 2024-25 का बजट प्रस्तुत किए जाने से ठीक पहले मिल रही शिकायतों से यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या सरकार मनरेगा बजट में वृद्धि कर करीब 9 करोड़ मनरेगा श्रमिकों का राहत देगी या फिर बीते वर्षों के समान ही उसमें कटौती जारी रहेगी?

अयोध्या से पत्रकार संध्या सिंह बताती हैं कि श्रमिकों को समय पर पारिश्रमिक भुगतान न होने के कारण विभागीय कर्मचारियों ने काम देना ही बंद कर दिया है, जबकि बाराबंकी में संविदा पर कार्यरत तकनीकी अधिकारी का कहना है कि मनरेगा योजनाओं (MGNREGA Schemes) के सुचारू न होने से संविदा कर्मचारियों का वेतन भी समय पर नहीं मिल रहा है। आमतौर पर, मजदूरों का पारिश्रमिक 2 से 3 महीने बाद और कर्मचारियों का वेतन छः महीनों में मिल रहा है।

संविदाकर्मियों को सता रहा है नौकरी जाने का खतरा

विदिशा, म.प्र. के सहायक परियोजना अधिकारी, जो कि राज्य संविदा कर्मचारी संगठन से जुड़े हैं, का कहना है कि मनरेगा श्रमिकों का समय पर भुगतान न होने का असर उनकी नौकरी पर पड़ सकता है, जब काम ही नहीं होगा तो उनकी सेवाओं की जरूरत ही नहीं रह जाएगी।

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उधर राजस्थान के सवाई माधोपुर से एक ग्राम पंचायत लेखा सहायक कहते हैं कि ऊपर से धन का आबंटन न होने का खामियाजा सरपंच और सरकारी कर्मचारियों को भुगतना पड़ रहा है, मनरेगा श्रमिकों की आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें पारिश्रमिक का भुगतान करना पड़ता है।

उक्त राज्यों के जिन जिलों से ये शिकायतें मिल रही हैं वही के कुछ ग्रामप्रधान/ सरपंच कहते हैं कि मनरेगा पारिश्रमिक के भुगतान में दो-तीन महीनों की देरी आम बात है, सरकारी बिल पास होने में इतनी देरी तो लग ही सकती है। लेकिन वे यह भी स्वीकार करते हैं कि कोविड से पहले इतना विलंब नहीं होता था।

बीते पांच सालों में निरंतर कटौती हुई है

मनरेगा श्रमिकों के भुगतान में देरी का कारण स्पष्ट तौर पर मनरेगा बजट में कटौती है। ज्ञात हो कि वर्ष 2019-20 में मनरेगा के लिए करीब 71,600 करोड़ का प्रावधान किया गया था, र्वा 2020-21 में इसे घटाकर 60,500 कर दिया गया था। लेकिन कोविड महामारी के कारण लगाए गए लॉकडउन के बाद काम की मांग बढ़ने पर इसे 1,11,500 करोड़ कर दिया गया था।

वर्ष 2021-22 में इसे घटाकर 98,468 करोड़ और 2022-23 में 73,00 करोड़ का प्रावधान किया गया था, बाद में इसे संशोधित  कर 89,400 करोड़ कर दिया गया। हैरानी तो तब हुई जब 2023-24 के बजट में बीते वर्ष की तुलना में करीब 33 प्रतिशत की कटौती के साथ 60,000 करोड़ कर दिया गया।  

इस बीच केंद्रीय बजट के आकार में हुई बढ़ोत्तरी के सापेक्ष मनरेगा बजट की यह कटौती और भी चिंताजनक है। ज्ञात हो कि वर्ष 2019-20 का बजट (संशोधित) 27,86,349 करोड़ रुपए था वह बढ़कर 2023-24 में बढ़कर 45,03,097 करोढ़ का हो गया। अनुमान लगा सकते हैं कि बीते पांच सालों में केंद्र सरकार ने मनरेगा पर निर्भर करीब करीब 15 करोड़ परिवारों के साथ कितना न्याय कर पाई है। आधार कार्ड से मिलान न होने और अन्य कारणों से सूची से हटाए गए 5 करोड़ 17 हजार जॉबकार्ड को छोड़ भी दिया जाए तो यह संख्या करीब करीब 10 करोड़ होती है।   

क्या चुनावी वर्ष में ग्रामीण गरीबों को मिलेगी राहत?

चुनावी वर्ष में पेश होने वाले वर्ष 2024-25 के बजट (सिद्धांततः जो अंतरिम बजट होना चाहिए) में सरकार ग्रामीण आबादी के इस बड़े हिस्से को कितनी राहत दे पाएगी, यह तो 1 फरवरी को बजट पेश होने के बाद ही स्पष्ट होगा। लेकिन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय को इसका पूरा अहसास है कि मनरेगा में धन की कमी के कारण ग्रामीण क्षेत्र में लोगों को कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है? अक्टूबर 2023 में ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा वित्त मंत्रालय से मनरेगा के लिए 23 हजार करोड़ के अनुदान की मांग करने से भी इसकी पुष्टि होती है। 

केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा की निरंतर की जा रही उपेक्षा से उस पर निर्भर ग्रामीण ही नहीं सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी भी आहत हैं। कुछ विशेषज्ञों ने तो सरकार के इस रवैए को एक सामाजिक कल्याण योजना का रक्त स्नानतक कहा है, जो यह मानते हैं कि न्यूनतम रोजगार के अधिकार की इस कानूनी योजना को सरकार खत्म करना चाहती है।

नरेगा संघर्ष मोर्चा के निखिल डे ने कहा है कि कम बजट आवंटन सीधे तौर पर उस योजना को खत्म करने का पहला कदम है जो करोड़ों गरीब लोगों के लिए जीवन रेखा के रूप में काम करती है। वर्ष 2023-24 का बजट पेश किए जाने से पहले भी ही नरेगा संघर्ष मोर्चा और पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी (पीएईजी) ने केंद्र सरकार से मनरेगा के लिए 2.72 लाख करोड़ रुपये आवंटित करने की मांग की थी। लेकिन उनकी मांग नक्कारखाने की तूतीसाबित हुई।

योजना के भविष्य को लेकर चिंतित हैं सामाजिक कार्यक्रर्ता

पीएईजी की एनी रंजन कहते हैं कि मनरेगा यह कानून दुनियाभर में अद्वितीय है। यहां श्रमिकों को 100 दिन काम करने का अधिकार मिलता है और मांग पूरी न होने पर मुआवजा भी मिलता है। लेकिन योजना के कार्यान्वयन में बार-बार बदलाव ने पहले ही इसे खत्म करने के लिए धीमे जहर के रूप में काम किया है।

समय पर पारिश्रमिक का भुगतान किए जाने से ग्रामीण क्षेत्रों से युवाओं के पलायन में तेजी आई है। उत्तर प्रदेश के अयोध्या, सुल्तानपुर और बाराबंकी जिलों से प्राप्त जानकारी के अनुसार करीब 3 हजार की आबादी वाले गांवों (ग्राम पंचायतों) में एक साल पहले 21 से 40 वर्ष के औसत के 35-40 युवा मनरेगा में काम कर रहे थे, आज यह संख्या 10 से भी कम रह गई है।

महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है खामियाजा

धन की कमी का खामियाजा अकुशल युवाओं के अतिरिक्त महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है। पश्चिम बंगा खेत मजदूर समिति से जुड़ी कार्यकर्ता अनुराधा तलवार कहती हैं कि महिला श्रमिक असुरक्षित हो गई हैं, खासकर एकल माताएं या निराश्रित जिनके पास कमाई का कोई अन्य साधन नहीं है। सरकार अक्सर मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण धनराशि रोके जाने की बात करती है, लेकिन अब तक किसी भी अधिकारी या नौकरशाह को दंडित नहीं किया गया है या जवाबदेह नहीं ठहराया गया है। उल्टा पारिश्रमिक का भुगतान न करके गरीबों को दंडित किया जा रहा है।

सामाजिक प्रभाव सलाहकार समूह डालबर्ग एडवाइजर्सद्वारा 5 राज्यों - उत्तर प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, राजस्थान और आंध्र प्रदेश, में ग्रामीण रोजगार की स्थितिशीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट से भी इस बात की पुष्टि होती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 26 प्रतिशत महिलाएं जो मनरेगा में काम करना चाहती थीं, वे काम  की अनुपलब्धता और कानून की जानकारी न होने के कारण आवेदन नहीं कर पाई, यह संख्या 42 लाख से अधिक है।

वास्तविकता से अनभिज्ञ नहीं है सरकार

ऐसा नहीं है कि सरकार विशेषज्ञों एवं सामाजिक संगठनों  के आकलन और ग्रामीण क्षेत्रों की वास्तविकता से अनभिज्ञ हो। इसके बावजूद वर्ष 2024-25 के बजट में मनरेगा के विशेष बजटीय प्रावधान नहीं किए जाते तो इसका विकल्प ग्रामीणें को ही खोजना होगा। उन्हें यह बात भूलना चाहिए कि 2005 में बना मनरेगा कानून उस समय सत्तासीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का साझा न्यूनतम कार्यक्रम के फलरूवप अस्तित्व में आया था, करीब दस वर्षों तक उसमें निरंतर सुधार होते रहे लेकिन बीते पांच वर्षों के दौरान विभिन्न कारणों से वह कमजोर हुआ है, जिनमें मनरेगा स्कीमों के लिए धन के आबंटन में कमी सबसे बड़ा कारण है।

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