प्रतिकार तो उन्हें भी करना होगा जो हितैषी हैं

सोए हुए को जगाया जा सकता है लेकिन जो जागना ही न चाहे उसे जगाना असंभव है।
यह कहावत मैंने पहली बार आरएसएस के कुमाऊं मंडल प्रचारक ओमपाल सिंह के मुंह से सुनी थी। वह कुमाऊं विश्वविद्यालय में छात्रसंघ चुनाव के दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उम्मीदवार के प़क्ष में माहौल बनाने के लिए पिथौरागढ़ कॉलेज के छात्रों की बैठक ले रहे थे। यह बात 1985-86 की है।
दुर्भाग्य ये है कि आज यह कहावत उन्हीं की विचारधारा के लोगों पर सबसे ज्यादा लागू हो रही है, जो सोए नहीं हैं बल्कि जागना नहीं चाहते।
हमारे यहां सदियों से विभिन्न मुद्दों पर विमर्श की परंपरा रही है - चाहे सांसारिक रहे हांे या आध्यात्मिक, प्रबुद्ध लोगों के बीच विचार-विमर्श की पूरी छूट थी। ‘नेति-नेति’ सूत्र भी हमें यही बताता है। लेकिन आज यह विचार पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है या फिर ध्वस्त कर दिया गया है।
17वें लोकसभा चुनावों के मद्देनजर जब हम नरेन्द्र मोदी सरकार के पिछले पांच सालों के कार्यकाल को देखते हैं तो भारतीय लोकतंत्र एक अनिश्चित दिशा की ओर बढ़ता नजर आ रहा है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में चुनाव एक ऐसा मौका होता है जब हम पांच तक सत्ता मंे रही पार्टी अथवा नेता के कामकाज का विश्लेषण कर नई सरकार बनाने का निर्णय लेते हैं। इस संबंध में बोलने वाले लोगों की संख्या आज बहुत कम रह गई है। जो लोग स्वार्थ या डर की परवाह किए बिना सरकार और नेता के कामकाज की समीक्षा कर रहे हैं, उन्हें सरकार, प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी का विरोधी ही नहीं देशद्रोही और दुश्मन देश (पाकिस्तान और चीन) का एजेंट तक करार दिया जा रहा है।
हालांकि यह काम भाजपा का आईटी सेल एक सुनियोजित तरीके कर रहा है लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो पूर्ववर्ती सरकारों के विरोधी और भाजपा के समर्थक व आरएसएस के स्वयंसेवक रहे हैं या आरएसएस द्वारा संचालित स्कूलों से निकले हैं। वे भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार का आंख मूंद कर समर्थन कर रहे हैं और खुद को ‘मोदीभक्त’ कहने में गर्व महसूस करते हैं। वे नहीं जानते कि वे देश का ही नहीं अपना और भाजपा का भी कितना नुकसान कर रहे हैं।
हमारे यहां ‘निंदक नियरे राखिए’ कहा गया है लेकिन भाजपा कार्यकर्ता और समर्थक अपनी निंदा सुनना तो दूर रहा तटस्थ विश्लेषण सुनने या पढ़ने को भी तैयार नहीं हैं।
हम किसी भी पार्टी को उसके कार्यक्रमों और चुनावपूर्ण की गई घोषणाओं के आधार पर चुनते हैं और उसके कामकाज को देखने के बाद उसे फिर से चुनते हैं या नकार देते हैं। वाद-विवाद, विमर्श इसके लिए जरूरी है।
पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने जो वायदे किए थे आज वे भूलकर भी उनका नाम नहीं लेना चाहते। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने हर रोज नए नारों के साथ जिन घोषणाओं औैर कार्यक्रमों की शुरूआत की थी उनका हश्र क्या हुआ है यह बात हममे से बेहतर वे लोग जानते हैं जिनके विकास और कल्याण के नाम पर वे कार्यक्रम शुरू किए गए। जब कोई पत्रकार या समाचार माध्यम इन पर चर्चा करना चाहे तो हिन्दू-मुसलमान और राष्ट्रवाद की बहसों व व्यक्तिगत हमले कर उन बहसों को दबा दिया जाता है।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने वास्तव में जनता और देश के हित में काम किए होते तो उन्हें अरबों रुपए चुनाव प्रचार में नहीं बहाने पड़ते। उनके सामने विपक्ष बहुत कमजोर और बिखरा हुआ था उन्हें विपक्ष पर हमले करने की जरूरत ही नहीं थी। वह प्रधानमंत्री बनने के अगले दिन से ही कांग्रेस से पिछले 70 सालों का हिसाब मांगने लगे और झूठ बोल कर भी नेहरू को कोसते रहे, उस पं. जवाहर लाल नेहरू को जिसे ‘गुट निरपेक्ष आन्दोलन’ के चलते, दुनिया की तीन चौथाई आबादी ने अपना नेता माना था।
प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने सबसे पहले अपने ही संगठन को खत्म करना शुरू किया। पार्टी के अनुभवी, निष्ठावान और विद्वान नेताओं को अलग-थलग डाला और नौसिखियों और लोकसभा चुनाव हार चुके नेताओं महत्वपूर्ण विभागों का मंत्री बनाया तो दूसरी ओर पार्टी संगठन में ऐसे लोगों का बढ़ावा दिया जिनके लिए पार्टी के प्रति निष्ठा का अर्थ केवल चुनाव जीतना या जिताना भर रहा है। कांग्रेस सहित तमाम पार्टियों के भ्रष्ट और अपराधी पृष्ठभूमि के नेताओं को भाजपा में शामिल किया, सत्ता की खातिर अलगावादियों का समर्थन करने वाली पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध में कुछ भी सुन पाने में असमर्थ ये मोदीभक्त क्या यह बता सकते हैंे कि अमित शाह के बाद भाजपा का सांगठनिक स्वरूप क्या होगा और नरेन्द्र मोदी के बाद किस तरह का नेतृत्व होगा? मोदी-शाह की इस जोड़ी ने क्या भाजपा रूपी वृक्ष की सारी शाखाएं नहीं काट डाली हैं?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह एक-एककर संवैधानिक संस्थानों विश्वसनीयता खत्म की है, सार्वजनिक क्षेत्र के मुकाबले निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया और उनके प्रचार का भी हिस्सा बने। शिक्षा, स्वास्थ्य, अस्पताल, संचार, यातायात आदि सभी क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के हवाले किया है। माना कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम अपना काम सही तरीके से नहीं कर रहे थे तो आप उन्हें सही कर सकते थे। आपके पास ताकत थी और विरोध करने वाला कोई नहीं था।
पिछले चुनाव में आपने हर साल दो करोड़ नए रोजगार पैदा करने का दावा किया था यह तो पूरा हुआ नहीं उल्टे आपके कुछ फैसलों के कारण बेरोजगारी का औसत पिछले 45 सालों में सबसे अधिक हो गया है। आपने कहा कि भ्रष्टाचार खत्म करेंगे, विदेशों में जमा काला धन वापस लाएंगे, आप ऐसा तो नहीं कर पाए उल्टा भ्रष्टाचार की जननी महंगे चुनाव को बढ़ावा दिया।
क्या हमारे मित्र प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के अध्यक्ष से से यह पूछेंगे कि भाजपा लोकसभा के चुनाव प्रचार के लिए 90 हजार करोड़ रुपए कहां से आए हैं और देश को इसकी क्या कीमत चुकानी होगी? साथ ही उन्हें यह भी उनसे पूछना चाहिए कि दिल्ली में अरबों रुपए की लागत से बना भाजपा का भव्य कार्यालय और उसके बाद देशभार में बन रहे या बन चुके भाजपा के कार्यालयों के लिए धन कहां से आया? 
राष्ट्रवाद का नारा आपने पिछली बार भी दिया था। कहा था कि हमारे जवानों के एक सिर के बदले पाकिस्तानियों के 10 सिर लाएंगे। लेकिन सच्चाई यह है कि सुरक्षा बलों और सामान्य नागरिकों की हत्याएं नरेन्द्र शासन के 5 सालों में उससे पहले के 5 सालों से अधिक हुई हैं। पुलवामा जैसी दर्दनाक घटना के लिए जहां प्रधानमंत्री को देश और सशस्त्र बलों से माफी मांगनी चाहिए थी वहां नरेन्द्र मोदी चुनाव के लिए उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होंने अपने शासनकाल में सेना द्वारा किए गए सर्जिकल स्ट्राइकों का चुनावी फायदे के लिए इतना प्रचार किया कि भारतीय सेना को समय-समय पर किए गए सर्जिकल स्ट्राइकों का खुलासा करना पड़ा। 
आज प्रधानमंत्री एक चुनावी सभा में दुश्मन देश को यह कहकर धमका रहे हैं कि हमारे पास जो परमाणु बम हैं वे दिवाली में फोड़ने के लिए नहीं रखे हैं। परमाणु बम जैसे विनाशकारी हथियार को लेकर प्रधानमंत्री की यह भाषा ही अपने पद के प्रति उनकी अगंभीरता ही दिखाती है, क्या उन्हें नहीं मालूम कि 1945 में जापान के नागासाकी और हिरोसिमा शहरों में क्या हुआ था? परमाणु हमले की विनाशकारी प्रभाव आज तक वहां पर मौजूद हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इतनी अधिक विदेश यात्राएं की हैं कि उनका देश में होना ही खबर मानी जाने लगीं थी। लेकिन विदेशों में आपने या तो व्यापारिक समझौते किए हैं या फिर भारतीयों के बीच में आत्म प्रशंसा करवाई है। लेकिन वे कभी भी विदेशों में मीडिया या बुद्धिजीवियों से रूबरू होने का साहस नहीं कर पाए? विदेशों में ही क्यों देश में भी आपने कभी मीडिया के सामने नहीं आए, दो-चार छिटपुट इंटरव्यू भी आपने उन्हीं लोगों को दिए जो आपके अहसानों तले डूबे हैं। 
भारतीय संघीय शासन व्यवस्था दुनिया के कई देशों के लिए अनुकरणीय रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश की संघीय व्यवस्था का कितना सम्मान करते हैं, यह बात उनके द्वारा पिछले 5 सालों में राज्यों की जनता द्वारा चुनी गई सरकारों को गिराने के लिए कराए गए दल-बदल से समझ सकते हैं। लोकसभा चुनावों के दौरान भी उन्होंने पश्चिमी बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इसकी खुली चेतावनी दी है।
यही नहीं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन 5 सालों में प्रधानमंत्री पद की गरिमा का भी मखौल उड़ाया है, पूर्व प्रधानमंत्री और भारतरत्न राजीव गांधी के बारे में की गई टिप्पणी उसकी सबसे बड़ी मिसाल है। उससे राजीव गांधी पर या कांग्रेस पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है उल्टे स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सतहीपन उजागर हुआ है और भारत के प्रधानमंत्री की गरिमा को ठेस पहुंची है।   
मित्रो, ये सब बातें मैं सिर्फ इसलिए दोहरा रहा हूं कि हम वस्तुस्थिति को समझें। सही क्या है, इसको जानने का प्रयास करें। भारतीय संविधान जहां हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है वहीं भारतीय संस्कृति गलत बात का विरोध करने की शिक्षा देती है।  खासकर, हमें उस व्यक्ति के गलत कामों और गलत निर्णयों सीधा प्रतिकार करना चाहिए जिसे हम अपना मानते हैं। अगर हम ऐसा नहीं करते तो इसका मतलब है कि हम उसके विनाश के भागी बनने वाले हैं।
जागिए, समय रहते अपने दायित्व को समझिए और उसे पूरा कीजिए। मोदी-शाह की जोड़ी ने भारतीय राजनीति को जिस मुकाम पर ला खड़ा किया है उससे आगे का रास्ता बहुत मुश्किलों का है। ये मुश्किलें और बढ़ें उससे पहले सचेत हो जाइए। अहंकारी व्यक्ति का समर्थन उसके अहंकार में वृद्धि ही करता है और बेलगाम अहंकार की परिणति हमेशा महाविनाश के रूप में होती है।
इन्द्र चन्द रजवार
दिल्ली, 8 मई, 2014

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2 टिप्पणियाँ

  1. रजवार जी बहुत अच्छा।

    प्रश्न यह है कि क्या संघ एक ब्यक्तिवाद के हावी होने का समर्थन करता है?

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