जीडीपी में वृद्धि से ज्यादा जरूरी है सतत् विकास

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अखिल भारतीय शिक्षा समागम कार्यक्रम मे। इसी मौके पर प्रधानमंत्री ने आगामी पांच वर्षों में भारत की ज्ीडीपी दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी जीडीपी होने की बात कही थी

भारतीय अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व विरोधाभास का सामना कर रही है। एक ओर देश की बहुसंख्य आबादी महंगाई, और बेकारी की मार झेल रही है, रिटेल और थोक बाजार मंदी का सामना कर रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा कर रहे हैं कि उनके तीसरे कार्यकाल में भारत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वाला दुनिया का तीसरा बड़ा देश अर्थात आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा। यह अलग बात है कि उन्हें तीसरी बार देश का प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिलेगा भी या नहीं। लेकिन उनका यह दावा बेबुनियाद भी नहीं है। भारतीय स्टेट बैंक रिसर्च की ‘इंक्रोप रिपोर्ट’ के अनुसार के अनुसार भारत 2027 में जर्मनी को और 2029 में जापान को पछाड़ कर संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की सबसे बड़ी जीडीपी वाला देश बन जाएगा।

एसबीआई रिसर्च के इस आकलन को देश के लगभग सभी अर्थशास्त्री स्वीकार करते हैं। हालांकि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार कहते हैं कि भारत की अर्थव्यव्स्था के तेजी आगे बढ़ने की भविष्यवाणी पहली बार नहीं हो रही है। प्रत्येक 15-20 वर्षों के अंतराल में इस तरह की घोषणाएं होती रही हैं। सबसे पहले 1965 में कहा गया था कि 1967 में भारत दुनिया की श्रेष्ठतम अर्थव्यवस्थाओं में आ जाएगा, उसके बाद 1990 तक भारत दुनिया की अग्रिम अर्थव्यवस्थाओं में एक होने का दावा किया गया। 2005 में तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने 2020 तक भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने की भविष्यवाणी की थी। उसी आधार पर 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2024 तक देश की जीडीपी 5 ट्रिलियन होने की बात कही थी।

सवाल यह उठता है कि क्या जीडीपी बढ़ जाना ही किसी देश की आर्थिक महाशक्ति बन जाना है ? वर्तमान समय में भारत की जीडीपी जो कि लगभग 3.75 ट्रिलियन अमेरिकी डालर है, अमेरिका (20.85 ट्रिलियन), चीन (19.37 ट्रिलियन), जापान (4.41 ट्रिलियन) और जर्मनी (4.30 ट्रिलियन) के बाद 5वें स्थान पर है। जबकि प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से दुनिया के 181 देशों में भारत 122वें स्थान पर है। भारत की प्रतिव्यक्ति जीडीपी 2.6 हजार डालर है, जबकि अमेरिका की 80.03 हजार, चीन की 13.72 हजार, जापान की 35.39 हजार और जर्मनी की 51.38 हजार अमेरिकी डालर है। यहां तक कि जिस ग्रेट ब्रिटेन की जीडीपी (3.16 ट्रिलियन) को पछाड़ कर भारत 5वें स्थान पर आया है उसकी प्रतिव्यक्ति जीडीपी भारत से कहीं अधिक 46.31 हजार अमेरिकी डालर है। यदि प्रतिव्यक्ति आय की बात की जाए तो भारत 142वें स्थान में यानी और भी पीछे है।

देश में आर्थिक असमानता के लिहाज से यह स्थिति और भी निराशाजनक हो जाती है। 2023 में दावोस में संपन्न ‘वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम’ की बैठक के दौरान जारी ऑक्सफैम की ‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट’ रिपोर्ट-2021 के अनुसार भारत के 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की 40.5 प्रतिशत से अधिक संपत्ति है तो नीचे के 50 प्रतिशत लोगों के पास मात्र 3 प्रतिशत संपत्ति है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि मार्च 2020 में कोरोना संकट शुरू होने से पहले देश के 19 करोड़ लोग खाद्यान्न संकट का सामना कर रहे थे, नवंबर 2022 में वह संख्या बढ़कर 35 करोड़ हो गई। उसी बीच देश के अरबपतियों की संपत्ति में 121 प्रतिशत (प्रतिदिन 36.68 रुपए) की बढ़ोत्तरी हुई। असमानतापूर्ण आर्थिक विकास का ही परिणाम है कि आज देश की 80 करोड़ लोग यानी आधी से अधिक आबादी सरकार द्वारा दिए जा रहे मुफ्त अनाज पर निर्भर हैं। 

इस विरोधाभासी स्थिति में क्या भारत आर्थिक महाशक्ति हो सकता है ? क्या दुनिया की पांचवी अथवा तीसरी सबसे बड़ी जीडीपी बन जाना 140 करोड़ भारतीयों के लिए गर्व का विषय हो सकता है ? खासकर तब जबकि सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यम तेजी से बंद हो रहे हैं, असंगठित क्षेत्र की दयनीय स्थिति हो, बेरोजगारी चिंताजनक गति से बढ़ती जा रही हो और सरकार मूल्यवृद्धि यानी महंगाई पर अंकुश लगाने में बुरी तरह नाकाम हो चुकी हो!

ऊपरी तौर पर इस विसंगति को 1991 में शुरू आर्थिक उदारीकरण के पूंजी केंद्रित विकास की परिणति कहा जा सकता है, लेकिन इसकी शुरूआत 1970 के दशक में ही हो गई थी जबकि ‘गरीबी हटाओ’ कार्यक्रम की असफलता के बाद नीति-नियंताओं ने जनवादी आर्थिक विकास के बदले वैश्विक प्रतिस्पर्धा के तरजीह देना शुरू किया गया और ‘चावल की कटोरी’ सिद्धांत के तहत बहुसंख्य आबादी को समूची लोकतांत्रिक और आर्थिक विकास प्रक्रिया से अलग-थलग करना शुरू कर दिया था। 

बैंकों के राष्ट्रीकरण और पूर्व राजाओं व नवाबों के प्रीवीपर्स समाप्त करने के बाद इंदिरा गांधी ने जब भूमि सुधार कार्यक्रम के तहत राजाओं, नवाबों और जमींदारों की अतिरिक्त जमीन को गरीबों और भूमिहीनों में बांटना शुरू किया और बैंकों को ग्रामीणों क्षेत्रों में शाखाएं और जरूरतमंद किसानों एवं ग्रामीणों को सस्ते व्याज पर ऋण देने का आदेश जारी करवाया तो राजा-महाराजाओं, जमींदारों और उद्योगपतियों व व्यापारियों की हितैषी स्वतंत्र पार्टी, भारतीय जनसंघ, कांग्रेस-एस, भारतीय क्रांति दल आदि ने यह कहते हुए इंदिरा गांधी का विरोध किया था कि वह देश में साम्यवाद लाना चाहती हैं। उसी दौरान दो साल सूखा पड़ने से देश में खाद्यान्न संकट पैदा होने पर उन्होंने ‘काम के बदले अनाज’ कार्यक्रम शुरू किया तो उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि गरीब की दिलचस्पी ‘एक कटोरी चावल’ पर लोकतंत्र और आर्थिक विकास की नीतियों से कहीं ज्यादा होती है। 

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गरीबों को मुफ्त में राशन और अन्य वस्तुएं देकर उन्हें समूची लोकतांत्रिक आर्थिक विकास प्रक्रिया से काटने की शुरूआत 1970 के दशक में हुई थी आज वही फूल-फल रही है। मुफ्त में राशन, मकान, शौचालय, पानी-बिजली, मोबाइन फोन, लेपटॉप, स्कूटी, बस यात्रा और किसानों, महिलाओं और युवाओं को नगद धनराशि देने आदि सभी इसी सोच पर आधारित है। हैरानी की बात तो यह है कि देश की बहुसंख्य आबादी मुफ्त की इन सुविधाओं के दूसरे पक्ष के बारे में सोचने को तैयार नहीं है। इसी कारण आज सभी राजनैतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए इस तरह के बड़े-बड़े दावे करती हैं।

बहरहाल, आर्थिक विकास का यह दृष्टिकोण ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के विचार से ठीक विपरीत है। भारतीय लोकतंत्र के निर्माताओं ने राष्ट्र निर्माण और सामाजिक रूपांतरण के लिए दो बातों पर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की थी; एक - निरक्षर जनता के बीच नागरिक अधिकारों पर आधारित समाज निर्माण और दो - जनवादी राजनैतिक व्यवस्था के अंदर आर्थिक विकास। इसी सोच के साथ भारत ने आर्थिक विकास की उड़ान भरी थी, जिसमें कृषि, उद्योग और व्यापार सभी क्षेत्रों का विकास हुआ और विकास के विभिन्न आयामों - शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार आदि क्षेत्रों समाज के सभी समूहों एवं वर्गों की पहुंच सुनिश्चित हो पाई।

वर्तमान असमानतापूर्ण आर्थिक विकास के चलते कुछ लोग तो विकास की उपलब्धियों का भरपूर लाभ उठा रहे हैं, वहीं समाज का बहुत बड़ा समूह शासन की दया अथवा मेहरबानी पर आश्रित होता जा रहा है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जयति घोष के अनुसार इस विकास से आबादी के शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की ही आय में वृद्धि होती है, जो पूंजी के वितरण की चुनौती पेश करता है। अधिकांश उच्च प्रदर्शन वाली अर्थव्यवस्थाओं की यही कहानी है। भारत में यह प्रवृति जितने लंबे समय तक जारी रहेगी, उतने ही लंबे समय तक अर्थव्यवस्था विशिष्ट वर्ग के लोगों समृद्धि में उछाल और गिरावट के साथ हिचकोले खाती रहेगी। देश के सतत विकास के लिए समाज के सभी वर्गों के उच्च मानवीय विकास-सूचकांकों पर जोर देने की आवश्यकता है।

इन्द्र चन्द रजवार

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ